बुधवार, 30 मार्च 2022

बरगद : संतोष "कौशिल" की कृति "मेमसाब" से ली गई कहानी

 बरगद 




    

अब मैं काफी बूढ़ा हो चुका हूँ। मेरे हरे-हरे पत्ते तो कर्तव्यनिष्ठा के प्रतिरूपण मात्र हैं परन्तु मेरे ज़ेहन में घावों का एक बहुत बड़ा समुन्दर है। वैसे तो जवानी से लेकर बुढ़ापे तक का जीवन दुःख देखते ही बीता है, परन्तु सच तो ये है कि मैंने अपने जिम्मेदारियों को सम्हालने की शुरूआत ही दुखों से की। आगे कुछ भी बताने से पहले आपको बता दूँ कि मैं एक बरगद का पेड़ हूँ। पौध के रूप में वन विभाग की नर्सरी से साथियों का साथ छोड़ा और जब पुलिस के वाहन में सवार होकर चलने लगा तब साथियों ने अलविदा कहते हुए भले ही गौरव महसूस किया लेकिन मुझे जीवन के प्रति चिन्ता हुई थी। सोचा ‘अब कहाँ जा रहा हूँ?’ नये स्थान पर जीवन मिलेगा या उपेक्षा में सूख जाऊँगा ?’ परन्तु मुझे लेने के लिए आये सूटेड बूटेड लोगों को देख, मन ही मन प्रसन्नता भी हुई और तमाम उधेड़ बुन की सोच भी। अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की पंक्ति ‘‘ज्यों निकल कर बादलों के गोद से ..., के ठीक उसी बारिश के बूँद की तरह, तमाम तरह के ख्वाबों को संजोये हुए। 

अवसर था पुलिस विभाग के एक रैतिक परेड का। पुलिस लाईन में पहुँच कर मैंने भी उस अवसर का पूरा लुत्फ उठाया। इस अवसर को देखकर बचपन मंे ही मुझमें जवानी सी आ गयी। मेरे लिए अब तक का सबसे बड़ी खुशी का दिन था। ऐेसा महसूस हुआ कि अब तो सारी जिन्दगी ही खुशियों और तालियों के बीच ऐसे ही गुजरेगी। दृश्य बहुत ही मन-मोहक था। बहुत सारे जवानों व अधिकारियों को सराहनीय कार्यों के लिए परेड ग्राउण्ड में ही सम्मान से नवाजा जा रहा था। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच कदम से कदम मिला कर परेड का मार्चअप और जवानों का सम्मान, मैंने पहली बार देखा। माइक पर परेड का उद्बोधन करते हुए एक अधिकारी, जो समारोह का पूरा खाका खींच रहे थे उनके शब्द जवानों के दिलों को जज्बा और कदमों को हौसला दे रहे थे। कार्यक्रम परत-दर-परत सिलसिलेवार आगे बढ़ रहा था। 

उन दिनों मैं अधिकारियों को उनके पद के अनुरूप नहीं जानता था क्यांेकि अभी मेरे भी इस विभाग में प्रारंभिक दिन थे और विभाग के बारे में ज्ञान के नाम पर बस चर्चाए व जन श्रुतियाँ ही मेरे पास शेष थीं। बस इतना ही समझता था कि जिसके कंधे पर जितने सितारे, वह उतना ही बड़ा अधिकारी। अचानक किसी अधिकारी के निर्देश पर दौड़ता हुआ एक जवान मेरे पास आया और बेधड़क झाबे से मुझे निकाल कर ग्राउण्ड के कोने की तरफ दौड़ा। परेड समारोह भी अपने अंतिम चरणों में था। जवान ने हमें वहाँ रखा जहाँ एक गज खुदी हुई जमीन, एक बाल्टी पानी, एक लोटा, फूलपत्ती, धूपबत्ती व पूजा के सामान आदि थे। चूँकि मुझे संस्कारांे का कोई ज्ञान नहीं था इसलिए यहाँ भी मूक दृष्टा ही बना रहा जैसे कि समारोह के दौरान कोने में झाबे में पड़े रह कर। मंच से उतरकर एक बड़े साहब आये, और मंत्रोचार के बीच मेरी भलीभाँति पूजा करके मुझे रोपित कर दिया। बड़े साहब के द्वारा मेरी खुद की विधि-विधान से की गयी पूजा ने मेरी मिथ्या धारणाओं को तोड़ा, मैंने भली-भाँति महसूस किया कि पुलिस वाले भी अच्छे इन्सान होते हैं और हर चीज की कद्र करना जानते हैं।

मैंने परेड ग्राउण्ड मंे ‘‘वर्ड आफ कमाण्ड’’ पर हौसले के साथ कदम बढ़ाते जवानों को देखा था। बडे़ साहब के एक लोटा जल ने हमें भी एक प्रकार से इस विभाग का जवान बना दिया। उन्होंने हमें एक लोटा जल नहीं दिया बल्कि मुझे जीने का हुनर और पुलिस विभाग के ऊपर कुर्बान होने का हौसला दिया! उन्होंने मेरी जड़ों पर मिट्टी चढ़ा कर मुझे आत्मबल एवं जिन्दगी के हर थपेड़ों व तूफानांे से लड़ने का साहस दिया। जड़ों पर मिट्टी चढ़ाते समय उनके कोमल हाथों के स्नेहमयी स्पर्श मंे मुझे अपनेपन का एहसास हुआ। मिट्टी और जड़ के बीच मजबूती से जूझते उनके हाथ मुझे मजबूत बनाने के प्रतीक जैसा था। उसी समय मैंने उनकी आँखों में झाँक कर देखा। वे मुझे देखने के बजाय मेरी जड़ों को देख रहे थे कि जड़ों पर मिट्टी मजबूती से दबी है या नहीं, उन्हें कमी नज़र आयी तो फिर झुके और हाथ लगाकर मिट्टी को दबाया और खड़े होते ही बोले - 

‘ तो यह बरगद का पेड़ है।‘ 

‘ सर.जी सर ’ कई अधिकारीगणों ने एक साथ जबाब दिया।

‘ अच्छा है, बड़ा होकर जब इसकी शाखाएँ फैलंेगी तो और सुन्दर लगेगा और जवानों को काफी छाया भी देगा।’

उपस्थित सभी अधिकारियों ने हाँ में हाँ मिलाया। साहब के मुख से इतना सुन्दर वर्णन सुनकर मैं भी गद्गद् हो गया। परन्तु इसके साथ ही जो बात मैंने बड़े साहब की नज़रों में देखी शायद वह चीज किसी अन्य विभाग में नहीं मिल सकती थी। 

‘वाह! क्या बात है।’ मैं भी धन्य हो गया इस विभाग में आकर क्योंकि मुझे रोपित करने से पहले साहब ने किसी से मेरी जाति नहीं पूछी न तो मेरी जाति पर उनकी नज़र गयी कि ‘मैं पीपल हूँ, पलााश हूँ कि नीम हूँ’ अगर उनकी नज़र गयी तो मुझे रोपित करते समय केवल मेरी जड़ों पर और जब उन्हें इत्मीनान हो गया कि मैं मजबूती से रोपित हो चुका हूँ, इसके बाद ही खड़े होकर उन्होंने कहा- ‘तो यह बरगद का पेड़ है।’ उन्हें खुशी हुई मुझे रोपित करके और उन्होंने आशा किया कि मैं बड़ा होकर छाया दूँगा। जैसा कि उन्होंने अपना भाव प्रकट किया। वाह! धन्य है यह विभाग और इस विभाग के अधिकारी जहाँ पहले किसी की जाति नहीं पूछी जाती, पुलिस परिवार में शामिल होने के बाद सबसे पहले उसे मजबूत बनाया जाता है फिर उससे लोकहित के कार्य की आशा। बड़े साहब की आँखों में भी हर जवान को मजबूत, ऊर्जावान बनाने एवं सुरक्षित देखने का सपना साफ झलक रहा था। मैंने भीे हृदयभाव से उन्हें सैल्यूट किया और ईश्वर से कामना किया कि ‘ हे प्रभु मैं मात्र पुलिस बिरादरी के रूप में जाना जाँऊ और हमारी पहचान कर्तव्य परायणता बने।’ पुलिस परिवार का सदस्य बनने का गौरव पाने के बाद मन ही मन सोचा- ‘मुझे अब जीना होगा इस विभाग के लिए, हमें कोई भी मार नहीं सकता। बडे़ साहब का एक लोटा पानी ही काफी है हमें ताउम्र जीने के लिए।’ उसी जज्बे के साथ मैंने भी सम्मान पाने और मर मिटने की शपथ ली। शायद यही शपथ सभी जवानों ने लिया था समारोह के दौरान। बड़े साहब के सामने ही मेरे ब्रीक गार्ड में एक पट्टिका लगा दी गयी जिस पर लिखा था ‘इस वट वृक्ष का वृक्षारोपण पुलिस महानिदेशक के कर कमलोें से दि0़़़़़़.... को किया गया, पुलिस महानिरीक्षक, उपमहानिरीक्षक, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक व प्रतिसार निरीक्षक।’ अधिकारियों के पदों के पहचान से यह मेरा पहला सरोकार था। 

एक दिली उत्साह ने हमें शीघ्र ही एक विभागीय जवान बना दिया। वक्त गुजरता गया धीरे-धीरे मैं कब अपने बड़े आकार में आ गया यह पता ही नहीं चला। अब मैं काफी हरा-भरा हो गया था। परेड करके थके जवानों को शीतल छाया एवं बयार देना मेरी दिनचर्या हो गयी। जवान भी मेरीे शीतल छाँव में थकान से राहत महसूस करते थे। हमें भी इन जवानों के साथ काफी आनन्द आता था उनकी घरेलू बातों में घुसकर उनके परिचर्चा का लाभ उठाने में। जवानों के चर्चाओं में कहीं घर की समस्यायें दिल को चीरती थीं तो कहीं बच्चों की किलकारियाँ सम्बल देतीं। किसी के जेब में पड़ी छुट्टी की अप्लीकेशन की चिन्ता, तो किसी के माँ बाप की हजयात्रा से आने की खुशी, तमाम तरह की बातें।

हमंे हमेशा याद रहता हेै कि ‘‘कौन समस्याओं से व्यथित नहीं है। समस्या सबके साथ है चाहे वह सिपाही हो या अधिकारी। परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है सुख-दुःख तो लगा ही रहता है। किसी को साहब का डर, तो किसी को मेम साहब का डर’’ रघुराज ने कहा था। खूब हँसीं आई थी। वह हंसमुख स्वभाव का तो था ही, दिन भर में एक बार उसका आत्म साथ जरूर होता था मेरे संग। गप्पें मारने में एक नम्बर का सिपाही था। रघुराज के चंचल स्वभाव से सारे अधिकारी भी खुश रहते थे। रोते को हसाना तो उसके चुटकियांे का खेल होता था। परन्तु हँसी खुशी जिन्दगी बीत जाये यह कैसे संभव है ? जिन्दगी में तूफान तो सबके मचते हैं, वैसा ही मेरे साथ भी हुआ। 

शहर में अचानक दंगा हुआ, हादसे में दंगाइयों की गोली से एक थानेदार एवं दो सिपाही शहीद हुए। यह मेरे लिए दुःख का पहला अनुभव था। सूरज उगने के बाद से ही उदासी का आलम। पहली बार लोगों को एक दूसरे के कन्धों पर सिर रखकर रोते देखा। शहीद जवानों के शव मेरी छाँव में रखे गये। देखते-देखते ही पूरा नजारा बदल गया। परिजनों का तांता, रोने चिल्लाने की आवाज सुन, मैं भी रो पड़ा, सभी लोग सिसक रहे थे, टूटती चूड़ियों और कंगनों की आवाजों ने तो मेरे ऊपर बज्र का पहाड़ तोड़ दिया। पत्नियों के विलाप कान नहीं, दिल को भेद रहे थे। बार-बार उनका शवों से लिपट कर रोना सबके दिल को दहला रहा था। जीवन का सहारा खो कर सूनी दुनियाँ में उनके क्रंदन गूँज रहे थे। पापा-पापा पुकार कर बिलखते बच्चों को देखकर किसका कलेजा नहीं फटा जा रहा था। छोटेे-छोटे बिलखते बच्चे बिना पतवार के नाव पर सवार हो गये। तुतलाते बच्चों की बातों का हमेशा हँसकर जबाब देने वाले पापा आज मौन थे, बच्चों के रोने पर भी नहीं बोल रहे थे। अशान्त शहर तो कल खुशियों से फिर आबाद हो जायेगा लेकिन क्या इन परिवारों की जिन्दगी में खुशियाँ पुनः वापस आ पायेंगी? जिन परिवारों में परिजन के नाम पर केवल ये जवान ही थे। जीवन का पहाड़ अब इन परिवारों के सामने था। यह सवाल मेरे दिल और ज़ेहन को अंदर ही अंदर काट रहा था। परन्तु इस सवाल का जवाब शायद ही किसी के पास था। 

शहीद जवानों की शहादत को सलाम करने के लिए विभागीय परम्परा के अनुसार शोक परेड का आयोजन किया गया जो इस विभाग में आवश्यक होता है परन्तु विधवा पत्नियों के विलाप के सामने हमें यह शोक परेड आदि बिल्कुल ही अच्छी नहीं लग रही थी, बस यही मन हो रहा था कि कितनी जल्दी यहांँ से दुःखद वातावरण हटे और मैं भी अकेले में जी भर कर रोऊँ लेकिन मैंने यहाँ देखा कि पुलिस विभाग में लोग अपनों को खोकर भी बहुत संयम से दुःख भरे पल में काम लेते हैं। यहाँ हमें बहुत कुछ सीखने को भी मिला कि जो दुःख में संयमित रहते हैं, उन्हंे ईश्वर आत्मबल देता है। शोक संवेदना के लिए परेड सजी। मैंने पहली बार देखा कि इस विभाग में मात्र सुख को ही नहीं दुःख को भी उतना ही सजाकर सम्मान दिया जाता है। पुलिस महानिदेशक महोदय आये। शोक बिगुल बजा, जवानों ने शस्त्र झुकाकर शहीदों को शोक श्रद्धान्जलि दी। आर0आई0 साहब ने शहीदांे के माथे से कपड़ा हटाया तो मैं एक बार फिर फफक पड़ा। ये वही जवान निकले जो कभी परेड की थकान से उबरने के लिए मेरे पास आते थे। कभी इनकी पारिवारिक बातों को सुनकर मैं भी आनन्दित होता था। शहीदों में रघुराज को देखकर तो मेरा कलेजा फटने लगा। 

मैंने कहा-‘ रघुराज तुम तो केवल हंसाते रहते थे यार, लोगोें को रुलाने का काम कब से सीख लिया?‘

परन्तु आज वह खामोश था और मैं रो रहा था। डी.जी.पी. साहब ने आकर भावभीनी श्रद्धान्जलि दी, हृदय विदारक स्थिति को देख उनकी आँखो मेें भी आँसू...।  वहाँ पर उपस्थित पत्रकारों ने उनसे कुछ पूछना चाहा तो उन्होंने मात्र यह कहा- ‘सारी, दैट टाईम नो कमेन्ट, अभी मैंने अपने जवान खोये हैं यह मेरे लिए दुःखद घड़ी है।

‘सर सेचुएशन..?’ पत्रकार ने पूछा। 

‘सिचुएशन इज अंडर कंट्रोल’ पुलिस महानिदेशक महोदय कई सवालों के जबाब देते हुए गाड़ी में बैठ कर चले गये।’ 

महोदय सैल्यूट देकर चले तो गये पर अपनों को खोने का गम उनके चेहरे पर साफ झलक रहा था। शहीदों के पार्थिव शरीर फूलों से सजे वाहन में रखे गये। वाहन सबके दिलों को झकझोरते हुए धीरे-धीरे मध्यम गति से अंतिम यात्रा को आगे बढ़ा। अधिकारियों ने पुनः एक बार सिर झुकाया, परिजनों बच्चों की चीत्कार व तड़प तेज हुई। मेरा दिल टूटा मैंने खुद से कहा-‘जाओ रघुराज आज ये हमारी अंतिम मुलाकात है, हमें पता है अब तुम मेरे पास कभी नहीं आओगे लेकिन तुमसे मेरी एक विनती है, तुम एक बार फिर जन्म लेना, तुम्हारे जैसे जवानों की बहुत आवश्यकता है पुलिस विभाग को, क्योंकि यहाँ की जिम्मेदारियों में गम बहुत है और तुम्हारे जैसे रोते को हँसाने वाले सिपाही कम। समाज की अपेक्षाएं बहूत हैं। यहाँ तो होली भी तुम्हारी ईद भी तुम्हारी, क्रिसमस भी तुम्हारी बैशाखी भी तुम्हारी, अपना क्या है ? दूसरों की खुशियों मेें तुम्हें अपनी खुशी तलाशनी है। देखो! तुम्हारे बच्चे रो रहे हैं, इन्हें कौन हँसायेगा ?’ इनकी टाफियों की जिद् अब कौन पूरा करेगा ? रूठने के बाद इन्हें कौन मनाएगा ? ड्यूटी के बाद घर में घुसते ही पापा-पापा के शोर के साथ लुकाछिपी का खेल अब समाप्त हो जायेगा। अब ये कभी बेड के नीचे न तो छिपेंगे न तो इन्हें कोई ढूँढे़गा। आज से घर की घड़ी अब न तो कभी तुम्हारे ड्यूटी जाने का समय बजायेगी न तो तुम्हारे ड्यूटी से छूटने का इन्तजार करायेगी। खेल-खेल में हुए बेईमानी की शिकायत अब तुम्हारे पास कभी नहीं आयेगी, न तो तुम अब खेल-खेल में हारते हुए छोटू को दीदी से कभी जिता पाओगे। हाथ में कुछ न कुछ लेकर घर में घुसने व उसे बच्चों के छीनने व झपटने का सिलसिला अब खत्म हुआ¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬.....। 

लोग रो रहे थे उन लोगों के तो आँसू भी गिर रहे थे परन्तु मेरे तो आँसू भी नहीं गिर सकते थे क्यांेकि मैं तरू था। आँसू के रूप में मेरे तो पत्ते झड़ रहे थे लेकिन मेरे इस रुदन की भाषा को कौन जाने। लोग तो गाड़ी के पीछे-पीछे कुछ दूर चलकर विदाई दे सके पर मैं जड़वत अभागा उसके साथ दो कदम चल भी नहीं सकता था, मेरी पीड़ा की ईश्वर ने एक सीमा रेखा खींच दी थी। मेरे लिए यह किसी ़कैद से कम न था। 

धीरे-धीरे वक्त बदलता गया। वक्त के साथ अधिकारी भी बदले परन्तु मैं अभी तक वहीं का वहीं पुलिस लाईन परेड ग्राउण्ड के एक कोने में अपने डाल-पात को फैलाए हुए अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहा हूँ। हाँ!, भगवान मिल जाते तो उनसे एक सवाल जरूर करता कि आखिर ऐसे दिन देखना मेरे ही नसीब में क्यों लिखा ? मेरे ही छाँव में सिन्दूर क्यों मिटाये जाते हैं ? इस विषय पर मैं ज्यादे नहीं समझ सका हूँ , अगर समझ सका हूँ तो मात्र अब तक इतना ही समझ सका हूँ कि शायद बड़े साहब ने मुझे इसी दिन के लिए मेरे जड़ों पर मिट्टी डालकर मजबूती से दबाया था और पानी दिया था ताकि मैं बड़ा होकर  इन दुखः-दर्द के थपेड़ों से विचलित न होऊँ। अब मैं समझ पाया हूँ कि एक सच्चे सिपाही का कर्तव्य क्या होता है ? कलेजे पर पत्थर रख कर अपनों को ढ़ोना। मेरे साथ अब अक्सर ऐसा कुछ होता है। भले ही अपने पुरानी जड़ों पर टूटते कंगन चूड़ियों की आवाजों को सुनकर व बिलखते बच्चों को देखकर रो लेता हूँ परन्तु मैं विचलित नहीं होता हूँ ठीक एक कर्तव्य पथ पर चलते हुए सिपाही की तरह....।


3 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! अद्भुद कौशिल जी, संवेदना को सामान्य जन की पहुँच तक सुलभ बनाकर आपने बरगद जैसी कहानी के रूप में रखा है। साधुवाद💐

    बेहतरीन चित्रण, बधाइयां

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